कनकलता बरुआ | Kankalta Kon Thi

कनकलता बरुआ | Kankalta Kon Thi

कनकलता बरुआ भारत की ऐसी शहीद बेटी थी जो भारतीय वीरांगनाओं की लंबी कतार में जा मिली। केवल 17 वर्ष की कनकलता अन्य बलिदानी वीरांगना से उम्र में छोटी भले ही रही हो लेकिन त्याग और बलिदान में उनका कद किसी से भी कम नहीं रहा। आइए पढ़ते हैं इनके बारे में 


कनकलता बरुआ

(Kanakalta Barua)


मात्र 5 साल की थी कनकलता जब उनकी मां की मृत्यु हो गई। 13 साल की हुई तो पिता भी चल बसे…

अब इस दुनिया में बिल्कुल अकेली रह गई थी कनकलता…

जब वह 7 साल की थी तो पास के ही एक गांव में क्रांतिकारियों की एक सभा हो रही थी जिसे स्कूल के बच्चों ने आयोजित किया था… 

अपने मामा के साथ वहां कनकलता भी चली गई और तभी से उनके भीतर बालपन में ही क्रांति की ज्वाला ने जन्म लिया…

'अंग्रेजों भारत छोड़ो' प्रस्ताव पास होने के बाद अंग्रेजी शासन के विरुद्ध आंदोलन देश के कोने-कोने में फैल गया। 

असम के शीर्ष नेता मुंबई से लौटते ही पकड़कर जेल में डाल दिए गए थे। 

एक गुप्त मीटिंग में तेजपुर की कोर्ट पर तिरंगा झंडा फहराने का निर्णय लिया गया…

यह स्थान तेजपुर से 82 मील दूर गहपुर का थाना चुना गया था। कनकलता भी अपनी मंजिल की तरफ चल पड़ी थी। 

कनकलता आत्म बलिदानी दल की मेंबर थी। दोनों हाथों में तिरंगा झंडा लेकर वो जुलूस का नेतृत्व कर रही थी। 

जुलूस के नेताओं को शक हुआ कि कनकलता और उनके साथी कहीं भाग जाएंगे इसलिए कनकलता शेरनी के समान गरजकर बोली "हम युवतियों को अबला समझने की भूल मत करना आत्मा तो अमर है। नाशवान है तो केवल इंसान का शरीर। अतः हम भला किसी से क्यों डरेंगे???" 

"करेंगे या फिर मरेंगे" "स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है" जैसे नारों से आसमान को चीरती हुई वे थाने की तरफ बढ़ने लगी…

थाने का प्रभारी जुलूस को रोकने के लिए सामने आ गया… 

कनकलता ने उससे कहा "हमारा रास्ता रोकने की कोशिश मत करो। हम आपसे संघर्ष करने के लिए बिल्कुल भी नहीं आए है। हम तो यहां थाने पर तिरंगा झंडा फहराकर आजादी की ज्योति को जलाने के लिए आए हैं। उसके बाद हम यहां से लौट जाएंगे।"

थाने के प्रभारी ने कनकलता से कहा "अगर तुम लोग एक इंच भी आगे बढ़े तो गोलियों से भून दिए जाओगे। 

इसके बावजूद भी कनकलता बरुआ निरंतर आगे बढ़ती ही गई और कहा कि "हमारी स्वतंत्रता की ज्योति कभी नहीं बुझेगी। तुम गोलियां बेशक चला लो, परंतु हमको हमारे कर्तव्य से नहीं मोड़ सकते।" 

इतना कहकर वे जैसे ही एक कदम आगे बढ़ी तो पुलिस ने जुलूस पर गोलियों की बौछार कर दी… 

पहली गोली कनकलता की छाती पर लगी। कनकलता गोली लगने पर गिर पड़ी लेकिन उसके हाथों का तिरंगा झंडा झुका नहीं। 

उसका साहस व बलिदान देखकर युवाओं का जोश और भी ज्यादा बढ़ गया। 

कनकलता के हाथ से तिरंगा लेकर गोलियों के सामने सीना तानकर वीर बलिदानी युवक अब लगातार आगे बढ़ते गए। 

एक के बाद एक गिरते गए किंतु झंडे को ना तो झुकने दिया और ना ही कभी गिरने दिया…

उसे एक के बाद एक दूसरे हाथ में थामते गए और अंत में रामपति राजखोवा ने थाने पर झंडा फहरा ही दिया। जिस सिपाही ने कनकलता पर गोली चलाई थी, वह इस पछतावे से भर गया कि उसने अपने ही देश की 17 साल की क्रांतिकारी को मार दिया। वह इतना ज्यादा परेशान हो गया था कि उसने कुएं में कूदकर अपनी जान दे दी।

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