तात्या टोपे का जीवन परिचय | Biography Of Tataya Tope In Hindi

तात्या टोपे का जीवन परिचय | Biography Of Tataya Tope In Hindi

भारत में 1857 में शुरू किए गए क्रांति को शायद ही कोई भूल पाएगा। भारतीय इतिहास के पन्ने को अगर पलटकर देखें तो 1857 में जितने महान वीरों ने अंग्रेजो के खिलाफ अपनी मातृभूमि के लिए लड़ाई लड़ी थी, वह सब देश को उसी वक्त आजाद करने के लिए काफी थे


मगर चंद मुट्ठी भर गद्दारों की वजह से हमारे देश में अंग्रेजों का राज्य स्थापित हो गया। जब हम उस जमाने को याद करते है, तो तात्या तोपे का बलिदान और उनका शौर्य पराक्रम हर किसी की आंखें नम कर देता है

 


तात्या टोपे का जीवन परिचय
(Tataya Tope Kon The)


तात्या टोपे की महानता केवल भारतीय इतिहास में नहीं बल्कि अंग्रेजी लेखकों के द्वारा भी इतिहास और कविताओं में उनका जिक्र किया गया है। इनकी शौर्य गाथा की कहानी बड़ी प्रेरणादायक है जिसे भारत के हर नागरिक को पढ़ना चाहिए और अपनी मातृभूमि के लिए किस प्रकार इन्होंने अपनी जान की आहूति लगा दी यह हम सभी को जरूर जानना चाहिए। 


तात्या टोपे का जन्म 1814 में महाराष्ट्र के नासिक जिले में वहां के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम पांडुरंगाराव और माता का नाम रुक्मणिबाई था।


उनके पिता पुणे में बाजीराव पेशवा के दरबार में रहते थे। जब बाजीराव पुणे छोड़कर बिठूर चले गए तो उनके साथ पांडुरंगा राव और उनका परिवार भी गया था और अपने पेशवा की सेवा में दिन रात लीन रहता था।


तात्या टोपे का जन्म और बाल क्रीड़ा है वही बिठूर में नाना साहब के साथ हुई। तात्या तोपे नाना साहब से 10 वर्ष बड़े थे इसके बावजूद दोनों में काफी अच्छी मित्रता थी और नाना साहब उनकी बड़ी इज्जत करते थे। तात्या टोपे का असली नाम जाबलेकर था, जाबलेकर को बचपन में ही हिंदी, मराठी, उर्दू, और संस्कृत जैसी भाषाओं का ज्ञान हो गया था। उन्हें लड़ाई में तलवारबाजी और घुड़सवारी बड़े अच्छे से आती थी। 


पेशवा बाजीराव के समक्ष बेहतरीन तलवारबाजी और पराक्रम दिखाने पर वे जाबलेकर से बड़े प्रभावित हुए और उन्हें एक रत्नों से जुड़ी हुई टोपी उपहार में दी जिसे वह सदैव अपने मस्तक पर पहने रहते थे।

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यह घटना महाराष्ट्र में हुई थी और इसके साथ ही बाजीराव उन्हें तात बुलाते थे तात का तात्पर्य छोटे से होता है।


और; इसी के साथ उनका नाम तात्या टोपे पड़ गया, धीरे-धीरे बाजीराव के द्वारा दिया गया ये नाम इतना प्रचलित हुआ कि जाबलेकर नाम कहीं गुम हो गया। 


1851 में पेशवा बाजीराव स्वर्गवासी हो गए तो उनके स्थान पर उनके बेटे नाना साहब में सारा कार्यभार संभाला।


तात्या टोपे उसी दरबार में बैठा करते थे और नाना साहब उनकी बड़ी इज्जत करते थे बिना उनके वह किसी भी तरह का फैसला नहीं सुनाते थे हर परेशानी में अपने से बड़े तात्या टोपे से राय अवश्य लेते थे।


जब 1857 में अंग्रेजो के खिलाफ युद्ध शुरू हुआ तो तात्या टोपे के कहने पर नाना साहब ने एक स्वतंत्रता सेनानी की टुकड़ी का गठन किया जिसका प्रमुख सेनापति तात्या टोपे को बनाया। 


कानपुर में अंग्रेजो के खिलाफ उन्होंने बड़ी शूरवीरता से लड़ाई लड़ी जिसका वर्णन केवल भारतीय इतिहास में नहीं बल्कि कई अंग्रेजी इतिहास और उनके कविताओं में भी किया गया है।


कुछ अंग्रेजी लेखकों ने तात्या टोपे की तुलना नेपोलियन और ब्लडग्रे जैसे सेनापतियों से की है। तात्या टोपे की अतुलनीय शौर्य प्रतिभा को देखकर अंग्रेज कानपुर छोड़कर भाग गए। 

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इसके बाद नाना साहब ने एक और तरकीब बनाई और अंग्रेजों को पूरे देश से भगाने के लिए एक बहुत बड़े स्तर पर युद्ध का आयोजन किया मगर तात्या टोपे अंग्रेज के बच्चे और उनकी औरतों पर जुल्म नहीं करना चाहते थे इस वजह से वह कानपुर में रह रही अंग्रेज औरतों और बच्चों को कुछ नहीं करना चाहते थे। इस वजह से बहुत बड़े स्तर पर उस वक्त टीम का गठन नहीं हो पाया।


मगर उसके कुछ समय के पश्चात अचानक अंग्रेजों ने एक ऐसा जाल बिछाया कि नाना साहब और तात्या टोपे के कुछ सगे संबंधी अंग्रेजों के साथ जा मिले और विषम परिस्थिति में बिठूर छोड़कर उन्हें जाना पड़ा।


इसके बाद तात्या टोपे ने बहुत सारे आस पड़ोस के राजा महाराजाओं से बात की और छोटी मोटी सेनाओं का गठन करके, अंग्रेजों पर गोरिल्ला युद्ध रणनीति से हमला करते रहे और अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया। 


तात्या टोपे ने अंग्रेज चक्रव्यू को तोड़ते हुए जयपुर टोंक और चरखारी जैसी जगहों पर सबसे पहले कब्जा किया।


उसके बाद अपनी वीरता को कालपी, ग्वालियर और झांसी जैसे जगहों पर भी दिखाया।


वह लड़ाई जीत गए मगर उन्हें बहुत अधिक सैनिकों का नुकसान हुआ। अगली बार जब अंग्रेज दोबारा हमला करने आए तो इनके पास सैनिकों की संख्या बहुत कम थी जिस वजह से इन्हें जंगलों में जाकर छुपना पड़ा। 

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कई दिनों तक हुए अंग्रेज सरकार के बनाए हुए जाल से बचकर भारत के दक्षिण में चले गए मगर अंग्रेजों ने उन्हें वहां भी चैन से रहने नहीं दिया हर जगह उन्हें पकड़ने के लिए अलग-अलग तरह के जाल बिछाए जाते थे। तात्या टोपे हर चाल को समझ जाते थे और वहां से छुपकर किसी और जगह चले जाते थे।


अंत में उनके एक मित्र ने 1859 में अंग्रेज सरकार को उनके आगे के सफर की खुफिया जानकारी दे दी। जिसके बाद तात्या टोपे को पकड़ लिया गया और 10 दिन तक मुकदमे का एक नाटक चला जिसमें तात्या टोपे को बहुत बड़ा गुनहगार साबित किया गया। 

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तात्या टोपे ने मुस्कुराते हुए हर किसी से कहा कि मैंने जो किया है अपनी मातृभूमि के लिए किया है और जब तक जिऊंगा मातृभूमि की आजादी के लिए लड़ता रहूंगा।


तात्या टोपे को 18 अप्रैल 1859 में फांसी की सजा दे दी गई, वह हंसते-हंसते फांसी के फंदे पर झूल गए और आखरी ख्वाहिश के रूप में फांसी के फंदे को स्वयं अपने गले में डाला।


तात्या टोपे के अतुल्य दान और पराक्रम शौर्य के किस्से सदैव भारतीय इतिहास में एक अहम हिस्सा बनकर रहेंगे।


आज भी तात्या टोपे का बलिदान भारतीय इतिहास में एक सर्वोच्च बलिदान के रूप में देखा जाता है।


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